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Wednesday 30 November 2011

गिद्धों का शहर

कुछ हाथों से नोचते हैं
कुछ बातों से नोचते है
हैं शर्म जिनके पास कुछ
वो आँखों से नोचते हैं
गिद्धों का शहर है ये
"बेटी" ज़रा संभल के |

Friday 16 September 2011

आंखें

हर ऋतु में , हर मौसम में

हर लम्हे , हर इक पल में

कुछ जलता सा रहता है

मेरे और उसके मन में

मेरे मन में जलते हैं

कुछ वादे और कुछ सपने

कुछ टूट चुकी जो कसमें ,

कुछ दकयानूसी रस्में,

कुछ लम्हे प्यार भरे,

कई दिन तकरार भरे,

कुछ बोल इकरार भरे

वो सवाल, जवाब खरे

बस जलते ही रहते हैं ................

कुछ उसके मन में भी था  जो हर दम सुलग रहा था

कुछ रोज़ तलक उन आँखों का भी रंग तो सुर्ख रहा था

Sunday 11 September 2011

तनहा सा ...

कभी घाटता ,कभी बढ़ता है तो कभी गुम हो जाता है
न जाने क्योँ मेरे जैसा है, क्या मुझसे उसका नाता है
जितनी मिलती है उसमे खुश, नहीं बड़े उसके सपने हैं
रौशनी उधार कि है , बस दाग ही हैं जो उसके अपने हैं
महफिलें रोज़ तारों कि देखता है वोह तनहा सा
सुबह होते ही छुप जाता है डरा सा और सहमा सा

Friday 9 September 2011

सभ्य समाज

मन में तामस
विचारों में आक्रोश
माथे पे बल
आँखों में विषाद
क्रोधित स्वभाव
होटों पे असत्य
मिथ्या स्व(अभिमान) 
तेज रफ़्तार जिंदगी
उन्नती की लालसा
नैतिकता से समझौता
कृत्रिम खुशियाँ
औपचारिक रिश्ते
छल ,माया, भ्रम
सभ्य समाज.........

Wednesday 17 August 2011

लकीरें .....

रोज़ क्योँ देखता हूँ , अपनी हथेलियौं को इतनी गौर से मैं
क्या खो गया है ? या क्या नया ढूँढता हूँ
शायद इक लकीर जो नहीं है.. पर होनी चाहिए थी