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Sunday 11 September 2011

तनहा सा ...

कभी घाटता ,कभी बढ़ता है तो कभी गुम हो जाता है
न जाने क्योँ मेरे जैसा है, क्या मुझसे उसका नाता है
जितनी मिलती है उसमे खुश, नहीं बड़े उसके सपने हैं
रौशनी उधार कि है , बस दाग ही हैं जो उसके अपने हैं
महफिलें रोज़ तारों कि देखता है वोह तनहा सा
सुबह होते ही छुप जाता है डरा सा और सहमा सा

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